मा की मईया जो होती है,
नानी, ननिहाल संजोती है।
हर रिश्ता उससे बनता है,
हर पीढ़ी को एक धागे वो बुनती है।
गर्मी की छुट्टी उसके आंगन खेले थे,
ना जाने कितनी यादे उस आंगन ने देखे थे।
नाना नानी की वो हर एक डांट,
तुमसे करते थे, आज भी वो याद।
तुम्हारे मंदिर में चुप चुप कर आना,
रसोइए में छुप छुप कर डिब्बों को हाथ लगाना।
तुम्हारी ज़ोर आवाज़ सुन कर, बच्चों का भागना,
नहीं करेंगे फिर वो शरारत, वादा कर के भी दोहराना।
छोटी छोटी बातों में लड़कपन तक तुमसे झगड़ना,
सयाने होने पर भी तू तू मैं मैं तुमसे ही तो होता था।
तुम्हारी वो पूजा पाठ की रोक टोक पे बेहेस करना,
फिर औरो के सामने उन्हीं बातों की पहर्वी देना।
अब कौन उस ननिहाल को संजोएगा?
कौन उस आंगन में डांट लगाएगा?
किससे छुप छुप रसोई गंदा करने को सताएंगे?
किससे छूट पाक की नोक झोंक लगाएंगे?
तुम्हारे मंदिर को गंदे हाथों से छूने को
अब किसको चिढ़ाएंगे?
जाने से पहले एक डांट और लगा जाती,
उन सब यादों को संभाल संजो के रखने को बता जाती,
पास आकर दे जाती या कोई ऐसी निशानी,
ननिहाल की याद आने पे जिसे हम सीने से लगा कर फिर उस आंगन के पल को फिर महसूस कर पाते,
अब तो बस यादों के सहारे छोड़ गई है तुम *नानी*।
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