Monday, 31 March 2014

ईश्वर की रचना हुई शोशित

था कभी ऐसा भी एक नज़ारा,
देखने में ये जहाँ लगता था कितना प्यारा।

हरियाली ही हरियाली थी हर जगह,
फूलों से सजा था सारा समां।

ईश्वर की पवित्र रचना हुई शोशित,
मानवों ने कर दिया इन्हे प्रदूशित।

ना जाने कहाँ गया वो कुदरत का नज़राना,
कलयुग में आ गया मिलावट का ज़माना।

हर चीज़ होती जा रही है अशुद्ध,
बिमारियों से लड़ लड़ के जी रहे है सब।

रास्ता ढूँढना पड़ेगा हमें खुद,
ताकी वापस आ सके वो हरियाली-खुशहाली अब। 

2 comments:

  1. Ineffiable truth which you have mentioned in this poem

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  2. Even though v know the route coz, still general public dont rectify their faults even us included. That's the main drawback.

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